लगभग पच्चीस करोड़ साल से इस धरती पर बास कर रही इन किसान मित्र लोपा मक्खियों को विभिन्न देशों में अलग-अलग नजरिये से देखा जाता है। यूरोप व नई दुनियां के देशों में, लोपा मक्खियों को अक्सर बुरी नजर से देखा जाता है। इसीलिये तो इसे “शैतान की सूई, “कान-कटवी”, “नरक की घोड़ी”, “यमराज की घोड़ी” व ‘सापों की सर्जन’ आदि जैसे बुराई द्योतक नामों से पुकारा जाता है। जबकि पूर्व एशिया और मूल अमेरिका के लोग इन लोपा मक्खियों को आदरमान के साथ देखते है। कुछ मूल अमेरिकी जनजातियां इन्हे शुद्ध पानी का प्रतीक मानती हैं जबकि अन्य तेज़ी, गतिविधि और नवीकरण का प्रतीक। जापान में इन लोपा मक्खियों को साहस, शक्ति और खुशी का प्रतीक माना हैं। जापान और चीन में तो इन मक्खियों को पारंपरिक औषधि के रूप में भी प्रयोग किया जाता है। इंडोनेशिया में इन लोपा मक्खियों के वयस्कों व अर्भकों को तेल में तल कर खाया जाता है।
भारत में इन कीटों को बरसात के आगमन के साथ जोड़ा जाता है। लोपा मक्खियों का जमीन के साथ-साथ मंडराना बरसात की निशानी माना जाता है। इनका आसमान में काफी उच्चे उड़ना धूप निकलने की निशानी व मध्यम उच्चाई पर उड़ना बादल छाने की निशानी माना जाता है। ये मक्खियाँ उडान के दौरान ही सहवास करती है और शिकार भी। ये मक्खियाँ अपने अंडे अमूमन तालाबों, झीलों या धान के खेतों में पानी की सतह पर देती हैं। इन अण्डों से निकलने वाले इनके उदिक निम्फ अपना गुज़ारा पानी में रहने वाले अन्य अकशेरुकीय जीवों को खा कर करते हैं। ये निम्फ सांस गुदा से लेते हैं क्योंकि इनके गलफड़े मलाशय में होते हैं। प्रौढ़ता प्राप्त करने के लिए ये निम्फ नौ-दस बार कांजली उतारते हैं।
लोपा-मक्खियाँ (Dragon Flies) एवं इनके अर्भक खाने के मामले में नकचढ़े नही होते। इन्हें जो भी फंस जाता है, उसे ही खा लेते हैं। इनके भोजन में मक्खी, मच्छर, तितली, पतंगें, मकड़ी व बुगड़े आदि कुछ भी हो सकता है। इन परभक्षियों के भूखड़पन का अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि एक प्रौढ़ मक्खी प्रतिदिन अपने वजन से भी ज्यादा मच्छर निगल सकती है। धान की फसल में हानि पहुँचाने वाली तना छेदक व पत्ता-लपेट जैसी सूंडियों के पतंगों का उड़ते हुए शिकार करने में तो माहिर होती हैं ये लोपा। खेत में काम करते हुए किसानों के सिर पर मंडराने के पिछे भी इन मक्खियों का उद्धेश्य शिकार करना ही होता है।