जारजटिया वंश से ताल्लुक रखने वाला यह कीटभक्षी निडाना के खेतों में सुबह या शाम को फसलों के ऊपर उड़ता दिखाई देता है। दे भी क्यों नही! मुद्रो को उड़ते हुए ही शिकार जो करना पड़ता है। शिकार अपने हाण के या अपने से छोटे कीट का ही आसानी से किया जा सकता हैं।
इनके भोजन में भान्त-भान्त की पौधाहारी सुंडियों के प्रौढ़ पतंगे एवं तितलियाँ, भान्त-भान्त के भूंड एवं भँवरे, भुनगे -फुदके आदि कीट शामिल होते हैं। जो फंस गया उसी से पेट भर लिया। मतलब भोजन के मामले में मुद्रो नकचड़ी बिलकुल नही होती। चलताऊ नजर से देखने पर तो मुद्रो के ये प्रौढ़ बने-बनाये लोपा मक्खी जैसे ही दिखाई देते हैं।
पर जरा गौर से निंगाहते ही इसके ढूंढ़रूदार लम्बे-लम्बे एंटीने नजर आने लगते हैं। जो लोपा मक्खियों से मेल नहीं खाते। आराम करते हुए इनका बैठने का ढंग भी लोपा मक्खियों से मेल नही खाता। एंटीने व पंख टहनी के सामांतर तथा शरीर लम्वत- शिकारियों से बचने के लिए लाजवाब छलावरण।
यह कीट अपने अंडे पौधों की डालियों पर या फिर जमीन पर ड्लियों के निचे रखते हैं। मौसम की अनुकूलता अनुसार अंडों से 5-6 दिन में लारवे निकलते हैं जो अन्य छोटे-छोटे कीटों को खा पीकर ही पलते-बढते हैं। इस कीट के ये लारवे घात लगाकर शिकार करते हैं।
अपना पेट भरने के लिए इस कीट के लारवे व प्रौढ़ों का दूसरे कीटों पर निर्भर रहना ही इन्हें प्राकृतिक कीटनाशी के रूप में अपना वजूद कायम करने के लिए काफी है। मगर इस आपाधापी व बिसराण के बाजारू युग में किसे फुरसत है विषमुक्त खेती के लिए इनके इस लाजवाब कार्य को परखने व मान्यता देने की।