जिला जींद के फसलतंत्र में किसान मित्र के रूप में डायन मक्खी भी पाई जाती हैं | जी, हाँ! , राजपुरा ईगराह रूपगढ, निडाना व ललित खेडा के किसान तो इसे इसी नाम से जानते हैं जबकि अंग्रेज इसे Robber Fly कहते हैं | नामकरण की द्विपदी प्रणाली के अनुसार यह डायन मक्खी, Dipterans के Asilidae परिवार की Machimus प्रजाति है |
डायन मक्खी घोर अवसरवादी एवं प्रभावशाली परभक्षी होती है | डायन मक्खी के ये गुण इसके शारीरक ढांचे में निहित होते हैं | इन मक्खियों की टांगें काफी मजबूत होती हैं | ऊपर से इन पर कसुते कांटे होते हैं | इनके माथे पर दो जटिल एवं विशाल आँखों के मध्य खास खड्डे में तीन सरल आँखें भी होती हैं | अपनी इन आँखों व टांगों के कारण ही ये मक्खियाँ शिकार का कोई अवसर हाथ से नही जाने देती | इनके चेहरे पर कसुते करड़े बालों वाली मुच्छ होती हैं जो मुठभेड़ के समय इनके बचाव के काम आती हैं |
शिकार फांसने के लिए लुटेरों जैसी रणनीति के कारण ही शायद इन्हें डायन या डाकू मक्खी कहा जाने लगा | डायन मक्खी अपने अड्डे से शिकार करती हैं | ये मक्खी अपना अड्डा खुली एवं धुप वाली जगह बनाती हैं | अड्डे की जगह पौधों की टहनी, ठूंठ,पत्थर व ढेला आदि कुछ भी हो सकती है | इस मचान पर बैठ कर ही यह मक्खी अपने शिकार का इंतजार करती रहती है | यहाँ से गुजरने वाले शिकार पर झपटा मरने के लिए इस मचान से उड़ान भरती हैं | कीट वैज्ञानिकों का कहना हैं कि यह डायन मक्खी अपनी टोकरिनुमा कांटेदार टांगों से ही उड़ते हुए कीटों को काबू करती हैं | हमने तो इस मक्खी को कई बार जमीन पर बैठे – बिठाए टिड्डों को भी झपटा मार कर अपनी गिरफ्त में लेते हुए देखा है |
शिकार को पकड़ते ही, डायन अपना डंक उसके शरीर में घोपती है व इस डंक के जरिये ही वह शिकारी के शरीर में अपनी लार छोड़ती है | इस लार में एक तो ऐसा जहरीला प्रोटीन होता है जो तुंरत कारवाई करते हुए शिकार के स्नायु- तंत्र को सुन्न करता है तथा दूसरा एक ऐसा पाचक प्रोटीन होता है जो शिकार के शरीर के अंदरूनी हिस्सों को अपने अंदर घोल लेता है | इन घुले हुए हिस्सों को डायन मक्खी ठीक उसी तरह से पी जाती हैं जैसे कोई बड़ा – बुड्डा दूध में दलिया घोल कर पी जाता है |
इनके भोजन में मक्खी, टिड्डे, भूंड, भिरड, बीटल, बग़, पतंगे व तितली आदि कीट शामिल होते हैं | डायन मक्खी कई बार अपने से बड़े जन्नोर का शिकार भी कुशलता से कर लेती हैं|