इस कीट का ज्यादा प्रकोप होने पर सरसों के पौधे निश्तेज़ होने लगते हैं। प्रकोपित पत्ते मुड़ने-तुड़ने लगते हैं। प्रकोपित फूलों से फलियाँ नही बन पाती। प्रकोपित फलियों में दानें हलके रह जाते हैं। पर मजबूत खाद्य श्रृंखला वाले इस प्राकृतिक तंत्र में एक-तरफा फूलने-फलने की छुट किसी भी जीव को नही है। फिर ये चेपा कैसे अपवाद हो सकता है! इस चेपे के निम्फों एवं प्रौढ़ों को खा कर अपना व बच्चों का पेट भरने वाले अनेकों कीट भी सरसों की फसल में पाए जाते हैं।
लपरो(Coccinella septumpunctata) व चपरो(Menochilus sexmaculatus) नामक लेडी बिटलों के प्रौढ़ एवं बच्चे इस चेपे को थोक के भाव खाते हैं। सिरफड़ो(Syrphus spp) मक्खी की अनेकों प्रजातियों के मैगट भी इस कीट के शिशुओं व प्रौढ़ों का भक्षण उछाल-उछाल कर बड़े चाव से करते हैं। दीदड़ बुग्ड़े के प्रौढ़ एवं शिशु भी इस चेपे का खून पीकर गुज़ारा करते देखे गये हैं।
एफ़ीडियस नामक परजीव्याभ सम्भीरका के साथ-साथ अन्य कई परजीव्याभ सम्भीरकायें भी अपने बच्चे इस चेपे के पेट में पलवाती हैं। चेपे के पेट में एफ़ीडियस का बच्चा पड़ते ही चेपा फुल कर कुपा होने लगता है और खाना पीना छोड़ देता है। अंतत: चेपा बिराने बालक पालने के चक्कर में ही मारा जाता है।
कुछ कीटभक्षी कवक भी इस चेपे को मौत की नींद सुलाते पाए जाते हैं। ऐसी एक सफ़ेद रंग की फफूंद से ग्रसित चेपा प. जयकिशन के खेत में किसानों ने सरसों की फसल में पकड़ा है। इस फफूंद के कारण चेपा रोग ग्रस्त होकर मौत की नींद सौ चूका है।
इतने सारे कीटभक्षी कीट एवं कवक तथा परजीव्याभ कीट मिलकर इस चेपे को निरंतर खत्म करते रहते हैं। इस तरह से यह चेपा शायद ही हमारी फसल में हानि पहुचने के स्तर पर पहुंचे। इसीलिए किसानों को कीड़े काबू करने की बजाय उनको जानने व समझने की कौशिश करनी चाहिए।